गुरुकुल आर्यनगर के संस्थापक श्रद्धेय स्वामी देवानंद जी महाराज का जन्म सन १९०८ में हिसार मण्डलान्तर्गत ग्राम मातारश्याम के एक सुसम्पन परिवार में हुआ था। सन्यास ग्रहण से पूर्व आप "लक्ष्मणदेव " के नाम से सम्बोधित किए जाते थे। आपके पिता जी का नाम श्री नंदराम जी तथा माता जी का नाम रत्ना घेऊ था। माता रत्ना जी घेऊ एक वीर, निडर तथा धर्मपरायण देवी थी। बाल्यकाल में माता जी की लोरियों ने ही आपको वीर,साहसी, उधमी, धर्मपरायण तथा देशभक्त बना दिया। माता जी की छत्र-छाया आपको चिरकाल तक प्राप्त नहीं हो साकी। जब आप १० वर्ष के थे तभी माता जी आपके ऊपर देश और जाती सेवा का भार डालकर स्वर्ग सिधार गई।
आपके पिताजी कृषि कार्य करते थे अतः आप भी उनकी सहायतार्थ कृषि कार्य में जुट गए। कुछ पारिवारिक बाधाओं के कारन आप स्कूल की शिक्षा से वंचित रहे तथा अपने घर में ही कुछ विद्वानों के संग से अपने हिंदी तथा संस्कृत का सामान्य ज्ञान प्राप्त किआ। अपने अपना बहुत सा समय कृषि कार्य में व्यतीत किया। कृषि विषय में आप अति निपुण तथा अपने प्रदेश में एक उच्चकोटि के किसान थे। कृषि कार्य करते हुए भी आपने विद्याभ्यास तथा स्वाध्याय को नहीं छोड़ा। आपने उपनिषदादि अनेक सदग्रंथो का स्वाध्याय किया। आप बाल्यकाल से ही विद्याप्रेमी रहे, इसी के परिणामस्वरूप सन्यास ग्रहण करने के कुछ पूर्व तथा पश्च्यात लगभग ४ वर्ष तक दयानन्द ब्रम्हा महाविद्यालय, हिसार को जहा आपने अपनी कुछ सेवाएं अर्पित ली वहाँ विद्वानों के संग से आप विद्यार्जन भी करते रहे। परन्तु इतने मात्र से आप संतुष्ट नहीं हुए, अपितु आपके मन में एक लगन थी की हिसार मंडल में वैदिक सिद्धांतो तथा संस्कृत भाषा का प्रचार और प्रसार एक गुरुकुल की स्थापना के बिना अधूरा है। इसी लगन के परिणामस्वरूप गुरुकुल आर्यनगर की स्थापना की गयी जिसका विशेष वृतांत आगे दिया जा रहा है। गुरुकुल की स्थापना के लिए श्री स्वामी जी महाराज किसी अनुकूल रमणीक स्वास्थ्यप्रद स्थान की खोज में हिसार क्षेत्र भीन्न - भीन्न स्थानों में भृमण करते रहते थे।चौ० देवसीराम जी , उप -निरीक्षिक (महकमा जरायत ) की प्रेरणा से आप गंगानगर मण्डलान्तगर्त जटान ग्राम निवासी चौ ० कुन्दनसिंह जी से मिले। चौधरी जी ,श्री स्वामी जी महाराज से इतने प्रभावित होए कि उन्होंने गुरुकुल स्थापना के लिए अपनी 400 बीघा भूमि तथा 3000 /-नकद देने का वचन दे दिया। परन्तु जल व्यवस्था के अभाव में उस क्षेत्र में गुरुकुल का विचार न बन सका। एक बार श्री स्वामी जी महाराज ने बालसमन्द ब्रांच (नहर ) के किनारे घूमते हुए एक ऊँचे रमणीक स्थान को देखा। वंहा आप नहर के किनारे कुछ देर के लिए सन्ध्योपासनार्थ बैठे तथा फिर किसी सज्जन से उस भूमि के विषय में विचार -विमर्श करते हुए आपको ज्ञात होआ की लगभग 1.5 एकड़ भूमि का यह ऊँचा रमणीक स्थान आर्यनगर (कुरड़ी) ग्राम निवासी ला०केसर दास जी बत्रा (नम्बरदार) से सम्बन्द रखना है। आप अगले दिन प्रातः काल ही लगभग 9 बजे समादरणीय लाला जी के घर पहुँचे। श्रद्धेया माता जी (धर्मपत्नी ला० केसर दास जी) ने आप भिक्षा सम्बन्धी कुछ बातें पूछी। परन्तु आपने उसी समय लाला जी को बुलवाकर दोनों के सामने गुरुकुल स्थापनार्थ नहर के किनारे सिथत उस भूमि को प्रदान करने की भिक्षा माँगी। श्री स्वामी जी महाराज के सर्वहितकारी वचनों से प्रभावित होकर दोनों पति -पत्नी ने संघर्ष लगभग 1.5 एकड़ भूमि स्वामी जी के चरणों में अर्पित कर दी। वास्तव में श्रद्धेया माता जी तथा समादरणीय लाला जी का यह त्याग अनुकरणीय तथा प्रश्सनीय है। ईस्वर उन्हें चिरस्थीयी शान्ति प्रदान करे समादरणीय लाला जी जहां गुरुकुल के लिए भूमि प्रदान कर यश के भागी बने वहीं गुरुकुल के सहायतार्थ लगभग 2000 /-रूपये भी अपने रिश्तेदारों से एकत्रित करके प्रदान किये। गुरुकुल के लिए अनुकूल भूमि प्राप्त होने पर चैत्र शुक्ला प्रतिपदा संवत 2021 तदनुसार 13 अप्रैल 1964 को पवित्र वेद मंत्रो की ध्वनि के मध्य गुरुकुल आर्यनगर की स्थपना की गई। स्थापना दिवस पर 11 ब्रह्मचारियों ने प्रवेश लिया तथा श्री स्वामी जी महाराज की इच्छानुसार गुरुकुल पध्दति के अनुरूप पठन -पाठन आरंम्भ हो गया और श्री स्वामी जी महाराज की सारी शक्ति गुरुकुल -भवनों के निर्माण तथा गुरुकुल की व्य्वस्थाओ के संचालन में लगने लगी। श्री स्वामी जी के प्रयास से इस गुरुकुल की चहुँमुखि उन्नति होने लगी।

अपनी कुछ सेवाएं अर्पित ली वहाँ विद्वानों के संग से आप विद्यार्जन भी करते रहे। परन्तु इतने मात्र से आप संतुष्ट नहीं हुए, अपितु आपके मन में एक लगन थी की हिसार मंडल में वैदिक सिद्धांतो तथा संस्कृत भाषा का प्रचार और प्रसार एक गुरुकुल की स्थापना के बिना अधूरा है। इसी लगन के परिणामस्वरूप गुरुकुल आर्यनगर की स्थापना की गयी जिसका विशेष वृतांत आगे दिया जा रहा है।

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